(एक)
डांग के वनवासी क्षेत्र में, बडोदे से, एक विश्व-विद्यालयीन छात्र पहुंचा; वनवासी बंधुओं के साथ रहकर, सह-जीवन का अनुभव लेने। युवा, एक कुटुम्ब में भेजा गया था। ऐसे अनेक युवा संघद्वारा भेजे जाते थे। पहुँचने पर, परिचय, और कुटुम्ब की वृद्धा माँ से, कुशल-क्षेम बातचीत चल रही थीं। बेटा काम पर गया था; और बहू अंदर काम कर रही थी; शायद रसोई। जब काफी समय बीता पर बहू बाहर नहीं आई। परिचय की औपचारिकता भी थी, और समरसता की परिपाटी भी, तो युवाने बहू से मिलाने का अनुरोध किया। तब माताजी अंदर गई और बहू बाहर आई पर उसे आने में अनपेक्षित देर हुई।
पाठकों, सच्चाई उपन्यासों की अपेक्षा अनोखी होती है। अगली पंक्ति पढने के लिए कुछ धैर्य धारण कर लीजिए।
जब बहू बाहर आई,युवा को एक करुण धक्का-सा लगा। हृदय की धडकन पल भर रुक-सी गयी। एक निःश्वास निकल गया। बहूने जो साडी पहनी थी, वो माताजी ने पहनी हुयी साडी से मेल खाती थी; नहीं, वही साडी थीं। उसे साडी कहना भी गलत है। एक झिरझिरा कपडा मात्र था। कभी वह वस्त्र साडी रहा होगा। आज झिरझिरा कपडा बन गया था। अब माता जी अंदर थी और बहू बाहर।ऐसी दारूण कंगालियत में जीनेवाले, इस हृदय विदारक भारत को, क्या आप नकार देंगे? या आँख हटा लेंगे,मन से ही झिडक कर निकाल देंगे?यह सच्चाई है। विवेकानन्द जी कहते हैं; *जब तक करोड़ों भारतवासी भूखे नंगे और अज्ञान में डूबे हैं, मैं प्रत्येक भारतवासी को कृतघ्न मानता हूँ, जो उनके त्याग की नींव पर शिक्षित होकर उन्हीं के हितों की अनदेखी करते हैं।*
ऐसी आँखो देखी दारूण कंगालियत स्वयं एक प्रबल प्रेरणा होती है। इस निजी अनुभव को सुनानेवाले सहृदय, कर्मठ व्यक्तित्व ने ही, सिंह-राशी का योगदान देकर कर यु.एस.ए. में अनेक हिन्दू संगठन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पनपाये है।
कौन है यह व्यक्ति? नाम देने में मुझे भी साहस नहीं, जब इस व्यक्ति ने सदैव पीछे रहकर ही काम किया है। मुझे भी बडी दुविधा ही है। पर जानने के लिए आगे पढें।
(दो) संगठन का रहस्य:
संगठन का रहस्य बडा सीधा है। पहले अपने अहंकार को शूली पर टांग दो, और फिर पूरी शक्ति और सामर्थ्य लगाकर कुआँ खोदो।
जिस व्यक्ति को निकट से जाना है, उस व्यक्ति पर लिखना कठिन होता है। पर जिस व्यक्ति नें अपने मान सम्मान की चिन्ता छोडकर, स्वयं को पीछे रखकर, संगठन खडा किया। उसके जीवन के कुछ पहलुओं पर लिखना चाहता हूँ, जो मेरी दृष्टि में विशेष हैं, जिनसे मैं प्रभावित था; शायद इसी कारण स्मृति में भी ये पहलू जगह बनाए हुए हैं।
व्यक्ति की स्मृति में, वही उभर आता है, जो उसकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण होता है। जिन सिद्धान्तों को इस व्यक्ति ने व्यवहार में, उजागर किया, उन्हें जानने पर विशेषतः कार्यकर्ताओं की अगली पीढी अवश्य लाभान्वित होगी। शायद इसी लिए वैसा अनुरोध मुझे किया गया है।
(तीन) कार्यकर्ता के पद कर्तव्यों के पद हैं।
हमारे पद, त्याग और सेवा के हैं; अधिकार के नहीं। जो भी आज, पदपर हैं, इस सत्य को समझ ले। पश्चिम का अहंकार-पोषक, रुग्ण मानसिक सम्पर्क, कार्यकर्ता को, ऊपर उठाने में सक्षम नहीं है। यहाँ सस्ती महत्वाकांक्षाएँ,और प्रसिद्धि का बोलबाला है; छिछली स्पर्धा है। देखा-देखी कार्यकर्ता भी इस मोहजाल में फँस सकता है। इस से अपने कार्यकर्ता को बचके रहना होगा।
चहूं-ओर महत्वाकांक्षा की, और स्वयं को “प्रमोट” करने की होड है। आदर्श के सामने, ऐसी सस्ती प्रसिद्धि हलकी होती है। ऐसे पथ पर लुढकते लुढकते, कार्यकर्ता बुराई में फिसल जाता हैं। और अंत में अपने आप से घृणा करने लगता है। कार्य से जुडे थे, कुछ अच्छाई सीखने, निश्रेयस की ओर बढने, पर हाथ आती है विफलता।
अमरिका में, ऐसे अनेक सस्ते नेता हैं,जो समाचार में नाम या छवि देखने की,प्रसिद्धि की लालसा से काम करते हैं। गहराई से सोचने पर ध्यान में आता है, कि, वैसे नाम या छवि का भी विशेष अर्थ नहीं। समाचार में, छवि देखकर मानना कि सभी मेरी छवि देख रहे होंगे, यह वास्तविकता भी नहीं है। छवि कुटुम्ब के बाहर सामान्यतः विशेष कोई देखता नहीं। देखता भी है, तो, पल दो पल। ऐसी क्षुद्र प्रसिद्धि पर जीवन दाँव पर लगाना मूर्खों का काम है।
स्मरण है, कि, मेहता जी ने एक बार कहा था, कि, *कल यदि समाचार पत्र बंद हो जाए, तो, क्या हम जीना बंद कर देंगे?* इतनी छिछरी प्रेरणा सुदृढ संगठन खडा नहीं कर सकती।
(चार) इतिहास
हमें इतिहास पता है,
*अनगिनत, अज्ञात, वीरो नें, चढाई, आहुतियाँ-
आज उनकी, समाधि पर, दीप भी जलता नहीं।
अरे ! समाधि भी तो, है नहीं।
उन्हीं अज्ञात, वीरो ने, आ कर मुझसे,यूँ कहा,
कि छिछोरी, अखबारी, प्रसिद्धि के,चाहनेवाले,
न सस्ते, नाम पर, नीलाम कर, तू अपने जीवन को
पद्म-श्री, पद्म-विभूषण, रत्न-भारत, उन्हें मुबारक।
बस, हम माँ, भारती के, चरणों पडे, सुमन बनना, चाहते थे।
अहंकार गाडो, माँ के पुत्रों,
राष्ट्र सनातन ऊपर उठाओ,
और कंधे से, कंधा जोडो,
इतिहास का पन्ना, पलटाओ।
“बिना हिचक, कहता हूँ, कि, कार्यकर्ता सेवक हैं; कॉर्पोरेशन का अधिकारी नहीं। यदि सेवा की मानसिकता होगी, तो हम सफल होंगे।
ऐसा आदर्श जिसने व्यवहार से दर्शाया, उसपर लिखने लेखनी उठाई है।
(पाँच) तीन कार्यकर्ता शिकागो गए।
बात पुरानी है: तीन कार्यकर्ता शिकागो गए। परिषद की शाखा प्रारंभ कराने। तीनों ने प्रस्तुति की। एक श्रोता ने पूछा; आप तीनों तो गुजराती हो, और हिन्दू संगठन का प्रस्ताव क्यों ? वास्तविकता यह थी, कि, तीनों गुजरातियों को तब ध्यान में आया, कि,वे वास्तव में गुजरात से हैं। गुजरात से आये अवश्य थे, पर उन्होंने हिन्दुत्व की पहचान ही व्यवहार में घोली थी। उत्तर था, हम पहले हिन्दू हैं। उनके मानस में हिंदुत्व से नीचे अन्य पहचान थी ही नहीं।
हिन्दुत्व का विशुद्ध संस्कार देश में संचारित कराने, सर्वाधिक प्रवास करनेवाला व्यक्ति इस आलेख का नायक है। कितने सप्ताहांत मैंने उनके घर दूरभाष जोडा और जाना कि परिषद के काम से डॉ. महेश मेहता बहारगाँव गए हैं। कभी गाडी या, विमान से, प्रायः अपना टिकट खर्च कर, किसी दूरस्थ नगर में परिषद के काम के लिए गए हैं।
मुझे कविता की पंक्तियाँ स्मरण हो रही है।
*छन्द ऐसा है हमारा, हरख चहुंकोर रैलाए।
रगडकर गाँठ का चन्दन महक चहुं ओर फैलाए।*
गाँठका चन्दन रगडकर महक फैलानेवाला सर्वाधिक प्रवास करनेवाला ,संगठक डॉ. महेश मेहता है।
(छः) प्रेरणा कार्यकर्ता ३ प्रकारों से, प्रेरित होता है।
(क) विकिरणसे:(Radiation)
जैसे सूर्य गरमी फेंक कर बिखेरता है। ऐसी प्रेरणा भाषणों जैसे साधन से बिखेरी जाती है।
(ख)संवाहनसे (Convection)
जैसे पात्र में पानी गरम होता है, तो प्रत्येक बिंदू बारी बारी से, पात्र के तल तक जा कर, गरम हो कर ऊपर उठता है। इस प्रक्रिया को संवाहन कहा जाता है। शिविरों से, युवा ऐसी प्रेरणा ले कर जाता हैं।
(ग) संचारणसे (Conduction)
जब धातु का चम्मच अंगार पर धरा जाए, तो दूसरा छोर भी गरम होता है। यह गरमी चम्मच के अणुओं में संचार करती हुयी एक छोर से दूसरे छोर तक सारे चम्मच को गरम करती है। इसे गरमी का संचरण कहा जा सकता हैं।
तीनों प्रकारों से कार्यकर्ता प्रेरित होता है। हर संस्था में भी तीनों प्रकार होते हैं। मेरी दृष्टि में ३ रा प्रकार श्रेष्ठतम है। पर नेतृत्व में प्रेरणा का अंगार होना चाहिए। नेता की ऊर्जा, उत्साह और त्याग, प्रत्यक्ष कार्यकर्ता को भी ऊर्जा देता है। यह स्पर्श प्रत्यक्ष संपर्क के बिना संभव नहीं।
भारत में शाखा के दैनंदिन सम्पर्क द्वारा यही गहरा संस्कार तीनों विधाओं से, किया जाता है। यहाँ दैनंदिन शाखा की सुविधा ना होने के कारण प्रत्यक्ष सम्पर्क के लिए महेश जी अनेक बार प्रवास करते थे। वें तीनों प्रकार से प्रेरणा देते रहे हैं।
और अनुभव भी है, कि, बहुत सारी स्वयंसेवी संस्थाओं के नेतृत्व में श्रेय चुराने की ही विकृति होती है। जिसके कारण नया कार्यकर्ता उत्साह से काम नहीं करता। ऐसी संस्थाओं में कार्यकर्ता उदात्त ध्येय से प्रेरित होता नहीं है; तो उनका छिछला नेतृत्व उसका कारण है। उनका कार्यकर्ता टिकता नहीं है। और पदधारक ही काम करता है। परिषद में पद का विशेष मह्त्व नहीं है। यहाँ कार्यकर्ता ध्येय समर्पित है। जो भी महेशजी के सम्पर्क में आया, विशुद्ध व्यवहार देखकर ही प्रभावित हो गया।
(सात) साक्षात संस्कार:
ऐसा संस्कार आचार, विचार, और व्यवहार से होता है; जिसका जीवन एक खुली पुस्तक होगा, उसी के लिए यह संभव होगा।जिस व्यक्ति के विषय में लिख रहा हूँ, उसका जीवन ऐसी खुली पुस्तक है। ऐसी खुली पुस्तक, जो सांझ सबेरे, सातो दिन, वर्षानुवर्ष एक ही लक्ष्यसे प्रेरित है, न उसे कोई पद्मश्री दी जा सकती है, न ऐसा सम्मान उसके लिए अर्थ रखता है।
आर्थिक समृद्धि में जकडे गए मिलियॉनरों-बिलियोनैरों को भी देखा है। समृद्धि के ऐसे गुलाम मस्ती के जीवन से प्रायः अनभिज्ञ होते देखें हैं; कुछ अपवाद अवश्य होंगे।
(आठ) कृतज्ञता
इस लेखक को अपनी कृतज्ञता भी व्यक्त करनी है। यह लेखक का अधिकार है, और कर्तव्य भी।इसी लिए यह लेख अर्थ रखता है।साथ साथ नयी पीढी के युवा कार्यकर्ता को ऐसे आलेख से कुछ दिशादर्शन अवश्य होगा। इसी लिए मुझे लिखनेका अनुरोध भी किया गया है।
मुझे अंग्रेज़ी में लिखने के लिए बार बार कहा जाता है। और यह भी उन लोगों द्वारा जो सनातन धर्म की सेवा में निष्ठा पूर्वक समर्पित हैं। अब “धर्मो रक्षति रक्षितः॥” का न उच्चारण बच्चे कर सकते हैं, न अर्थ जान सकते हैं।
(नौ) चेतावनी:
कुछ युवा कार्यकर्ता ही बोले कि, हिन्दी या संस्कृत कौन समझता है? पर मैं हिन्दी और संस्कृत दोनों का पुरस्कर्ता हूँ। हिन्दी भारत की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है, राष्ट्रभाषा का स्थान सुशोभित कर सकती है। संस्कृत सांस्कृतिक भाषा है। संस्कृत गयी तो संस्कृति गयी। और हिन्दी गई तो राष्ट्रीयता गई। *देवनगरी में रोमन कंकड* पढने पर आप भी सहमत होंगे। वैसे प्रवासी भारतियों में अंग्रेज़ी लिखनेवालों की भरमार है।
(दस) समरसता
समाज समरसता से ही संगठित होता है। बिना समरसता समता असंभव है। ऐसी समरसता मीठे रस में डूबे हुए, गुलाब जामुनो जैसी होती है।गुलाब जामुन जब मधुर रस में डूबे होते हैं, तो सारे एक ही रस से, समरस से, सराबोर होते हैं। शुद्ध बंधुत्व के प्रत्यक्ष व्यवहार बिना ऐसी समरसता संभव नहीं होती। भारत में ऐसी समरसता दैनंदिन शाखा के सम्पर्क द्वारा प्रस्थापित होती है। ऐसी समरसता के लिए दूसरा कोई झटपट मार्ग (शॉर्ट कट) नहीं है।
(ग्यारह) महेश जी से परामर्श
महेश जी से परामर्श के लिए सारे भारत-हितैषी सदा सम्पर्क किया करते रहें हैं। हर समस्या का हल भी वे निकाल देते हैं। इस सहायता के कारण भी, अमरिका में अनेक भारत हितैषी संस्थाएँ एवं आंदोलन खडे हुए। ऐसी अनेक संस्थाएँ और प्रकल्प हैं। आलेख की सीमामें मुझे उनके नाम लेना भी संभव नहीं लगता, न सभी की जानकारी है।
जो भी समस्या उनके सामने लाई जाती है, कुशलता से उसका हल आप देते हैं। सारी सांस्कृतिक समस्याओं का हल जहाँ गत ४० वर्षों से निकला है, उस व्यक्ति का नाम महेश मेहता है। हर समस्या का समाधान यहाँ निकलता था। आपात्काल से लेकर बडे बडे सम्मेलनों को दृढता से कार्यान्वित करने का दुर्दम्य आत्मविश्वास रखनेवाला और कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करनेवाला व्यक्तित्व है, महेश मेहता। यह अनुभव इस लेखक को बार बार आया है। देर रात्रि तक जगकर आप ने अनेक रात्रियाँ बिताई है। भारत से भी सतत सम्पर्क रखा है।
कितने अतिथि अभ्यागत स्वामी, संन्यासियों के लिए आपके द्वार और भण्डार सदैव खुले रहे हैं। कितने ऐसे भी आए जो, कठिनाई में महेश जी के घर आतिथ्य पाए, जब काम हो चुका तो फिर राम राम। न कभी संबंध रखें, न किसी काम में हाथ बटाए। पर सारे ऐसे ही थे, ऐसा भी नहीं है।
(बारह)
अनेक भारत हितैषी संस्थाएं जो आज ठोस काम कर रही है, उनकी नींव में जिस व्यक्तिका कठोर परिश्रम है, उसका परिचय ही मैं ने कराया है।
यदि वह धन के पीछे ही पडा होता, तो मल्टाय मिलियोनर या बिलियोनैर हो जाता।पर इस व्यक्ति का हर सोता-जागता पल हिन्दू समाज, और भारतीय हितों के चिन्तन में बीता है। मेरा भाग्य रहा, कि, मैं ऐसे व्यक्तित्व को निकट सम्पर्क से जानता हूँ।
कितनों के सत्कार हुआ करते हैं। धन्य है भारत माता जो उसके ऐसे भी भक्त हैं, जो सत्कारों के भूखे नहीं। जिस संघ के संस्कार उसने पाए हैं, वो सत्कार में विश्वास नहीं करता। माँ की सेवा में कैसा सत्कार?
“तेरा वैभव अमर रहे माँ हम दिन चार रहे न रहें” गानेवाले हम माँ का पुजारी है।
अंत में, आप को सदैव साथ देनेवाली आप की धर्मपत्नी सु. श्री. रागिनी मेहता के सक्रिय साथ बिना यह कठोर काम असंभव मानता हूँ।
आप की व्यावसायिक योग्यता और अनेक भारत हितैषी संस्थाओं में आपके योगदान का एक अलग आलेख हो सकता है। मेरी जानकारी की मर्यादा में लिखने का प्रयास किया।
ऐसे भारत पुत्र को दीर्घायु की कामना करते हुए लेखनी को विराम देता हूँ।
Dr. Madhusudan Jhaveri is the past president of VHPA. He has written a series of articles on language, culture and organization. He has published Shabd Bharati, a book that traces roots of most Hindi words to Sanskrit and also devised a system to create new Sanskrit words. His upcoming book Gaurav Bharati is currently in press.